सूतिका स्नान के बाद बालक के नामकरण की बारी आती है। नाम रखना एक संस्कार है एक अनुष्ठान है। नाम से ही व्यापार चलता है नाम से ही शिक्षा पूर्ण होती है। नाम से ही रिश्ता तय होता है। नाम के अनुसार ही विवाह मुहुर्त निकलता है इसलिए बच्चे का नाम विधि-विधान से रखवाना चाहिए। पहले नाम रखने के लिए ज्ञानी पण्डित जी या किसी विद्वान संत को बुलाया जाता था और जन्म समय के नक्षत्र के आधार पर नाम रखा जाता था। आज के फैशन के दौर में मम्मियाँ खुद ही महापण्डित बन जाती हैं और अपने बच्चों के स्वयं ही ऊट-पटांग नाम रख देती है। बन्टी, बबली, चिन्टू, मिन्टू कई बार तो ये पता ही नहीं चलता की आवाज बच्चे को लगाई है या पिल्ले को…. नाम अपनी इच्छा से कभी नहीं रखना चाहिए। जब भी नामकरण संस्कार की बारी आए तब अपने सदगुरू, कुलगुरू, किन्ही संत या विद्वान ब्राह्मण देवता को सादर बुलाकर जहां गौमाता जी का गोष्ठ जहां गोमाता बान्धी जाती है, उस स्थान पर बैठकर ही नामकरण करना चाहिए।
गर्ग संहिता मे प्रसंग आता है कि जब नन्द बाबाजी ने अपने लाला के नामकरण हेतु गर्गाचार्य जी को बुलाया एवं अपने भवन में सुन्दर आसन बिछाकर विराजमान करके निवेदन किया कि प्रभु लाला का नाम रखने की कृपा करें। गुरूदेव ने मना कर दिया और कहा कि बेटा यहाँ बैठकर नाम नहीं रखेंगे । चलो अपनी गोशाला में, अपनी गोमाताएं जहाँ है वहाँ चलो, वहीं बैठकर नाम रखेंगे। यह कहकर गर्गाचार्य जी नन्दबाबा को गोशाला ले गए। क्योंकि गोमाताजी के तन में 33 कोटि देवता है। जब सर्वदेवमयी गोमाताजी के पास बैठकर नाम रखेंगे तो सभी देवताओं की साक्षी होने से नाम के अनुरूप गुण आएंगे। पहले तो घर में गैया मैया होती थी और गैया मैया के पास बैठकर ही नामकरण होता था इसलिए सबका यथा नाम तथा गुण होता था। अब अधिकांश घरों में आज गोमाताजी है ही नहीं। बिना देव साक्षी के नाम रख दिया जाता है। इसलिए नाम का विपरीत असर आता है। अधिकांशतः देखने में आता है कि नाम रामलाल काम रावण जैसा, नाम सीेता देवी काम सूपनखां जैसा, नाम सुखलाल और उसके जीवन मे दुनिया भर का दुःख भरा पड़ा है, नाम शान्तिदेवी और दिन भर पूरे गांव में लड़ाईयाँ करती फिरती है। यह सब गड़बड़ इसलिए हो रही है कि हम अपने शास्त्रों के विपरीत चल रहे है। जब भी नाम रखना हो तो आप पहले गोमाताजी को गुड़ नेवेद्य जिमाकर संतुष्ट करके बालक को उनके समीप बिठाकर ज्ञानी महापुरूष से नामकरण करवाएं।